२७ जून, १९७०

 

   बहुत दिनोंसे आपने कुछ नहीं कहा...

 

 ( मौन)

 

कुछ व्यक्त करनेके लिये थोड़ा-बहुत मानसीकरण जरूरी है और वह बहुत कठिन है, क्योंकि शरीर सब प्रकारकी अनुभूतियां करनेमें लगा है और सीख रहा है, लेकिन जैसे ही वह व्यक्त करनेकी कोशिश करता है, वह कहता है : '' नहीं, यह सच नहीं है, यह ऐसा नहीं है.... '' ( माताजी छोटे, संकरे चतुष्कोण बनाती हैं) यह जीवनसे ज्यामितिके आकार बनानेकी तरह है । यह इसकी राय है ।

 

   दूसरी तरह भी यह अकथनीय है क्योंकि यह बहुल है, जटिल है, और अगर तुम उसे समझानेके लिये सामने न रखो तो... उसे कहा मी नहीं जा सकता । और जैसे ही तुम उसे समझानेके लिये व्यक्त करते हो तो वह सत्य नहीं रहता ।

 

   इन दिनों चेतनाकी यह अनुभूति रही है कि, अगर तुम दिव्य आनन्दमें हो जहां चीजें जैसी-की-वैसी बनी रहती है, तो बस जरा-सा सरकाव या स्थानान्तरण ( कैसे कहा जाय?), वृत्तिमें जरा-सा फेर, जिसे व्यक्त भी नहीं किया जा सकता, एक यंत्रणा-सा बन जाता है! और यह एक सतत घटना है । ऐसे क्षण होते हैं जब शरीर यातनासे चिल्लाता है और... जरा-सा, बिलकुल जरा-सा परिवर्तन जिसे व्यक्ततक नहीं किया जा सकता और चीज आनन्द बन जाती है -- वह और ही चीज हों जाती है... यह एक असाधारण चीज हो जाती है, सब जगह भगवान्-ही-भगवान् । इस तरह शरीर सारे समय एकसे दूसरेकी ओर गति करता रहता है, यह एक प्रकारकी जिमनास्टिक्स है, दो अवस्थाओंके बीच चेतनाका संघर्ष।
 


  और कभी-कभी, कुछ सेकंडोंके लिये, यह पीड़ा अत्यंत तीव्र हो उठती है और शरीर कहता है : ''बस, बहुत हों चुका, बहुत हो चुका' ', और फटसे... ( माताजी उलटावकी मुद्रा करती है) । तब, कहना असंभव है । जो कुछ कहा जाता है वह सत्य नहीं रहता ।

 

   और मानो कष्ट सहन करनेवाले सभी स्पंदनोंको सामान्य मानव चेतना- की राशि बनाये रखती है -- हां, ऐसा ही है । और दूसरेको एक ऐसी चीज सहारा देती है जो... हस्तक्षेप करती नहीं प्रतीत होती 1 वह अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये यत्नशील मानव समूहकी तुलनामें ( निश्चलकी मुद्रा).. अतः, यह सब कहना असंभव है ।

 

   और हमेशा, हमेशा या तो यह 'निश्चल शांति' -- यह सर्वश्रेष्ठ 'शांति', जो उस शांतिसे बढ-चढूकर है जिसे हम अनुभव कर सकते है -- और साथ ही तुम यह जानते हों ( यहां ' 'अनुभव करते हो' ' नहीं कहा जा सकता, तुम जानते हों) कि रूपांतरकी गति इतनी अधिक तेज है कि उसे भौतिक रूपमें नहीं देखा जा सकता । और दोनों संयुक्त हैं और यह शरीर एक दशामेंसे दूसरीमें जाता है और कभी-कभी कभी-कमी दोनों लगभग एक साथ ( माताजी सिर हिलाती हैं, यानी, समझा सकना असंभव है) ।

 

   और तब यह सामान्य वस्तुओंको, यानी, जीवनके बोधका - जैसा कि वह है -- भगवानकि दृष्टिसे नहीं, बल्कि भागवत दृष्टिकी तुलनामें -- एक व्यापक पागलपनका रूप दे देती है और सचमुच जिसे लोग पागल कहते है और जिसे तर्क-बुद्धिसंगत कहते हैं, उन दोनोंमें कोई फर्क नर्मी रहता... हां -.. मनुष्य जो भेद करते है वह हास्यास्पद है । उनसे यह कहनेकी इच्छा होती है. लेकिन तुम सभी एक-से हों, सिर्फ मात्राका फर्क है '

 

हां...

 

और यह सब युगपत बोधोंका जगत् है । इसलिये सचमुच कुछ कहना असंभव है ।

 

  यहां ( माताजी अपना सिर छूती है), यहां कुछ भी न०गुइ है, वहांसे होकर कुछ भी नहीं आता-जाता । वहां कुछ नहीं है । यह कोई ऐसी चीज... ऐसी चीज है जिसका कोई यथार्थ रूप नहीं है, पर जिसे एक ही साथ अनगिनत अनुभूतियां होती हैं, लेकिन व्यक्त करनेकी क्षमता जैसी- की-वैसी बनी है, यानी, अक्षम है ।

 

 ( मौन)

 

 उदाहरणके लिये, जो कुछ हो रहा है उसका लिये एक हीं समयमें

 

उसकी व्याख्या ( ''व्याख्या' ' ठीक शब्द नहीं है, परंतु...) सामान्य मानव चेतनाकी व्याख्या ( ' 'सामान्य' ' सें मेरा मतलब घिसी-पिटीसे नहीं, मानव चेतनासे है), फिर वह व्याख्या है जो श्रीअरविद प्रकाशित मनके द्वारा देते हैं और... दिव्य बोध । एक ही चीजके लिये, एक साथ तीनों -- इन्हें कैसे, कैसे कहा जाय?

 

   और हमेशा, सारे समय यही होता है और तब यह ( माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करील हैं), यह अपने-आपको व्यक्त करनेकी अवस्था- मे नहीं है, यह अभिव्यक्त करनेका समय नहीं है ।

 

   यहांतक कि जब मैं लिखती हू तब मी ऐसा होता है । अतः, मैं अपने मूढतापूर्ण सूत्रोंमें जितना भरा जा सकें भरनेकी कोशिश करती हू -- और मैं इतना अधिक भर देती हू! इतना अधिक! जो शब्दोके द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता -- अतः, जब कोई मेरी लिखी चीजको मेरे आगे पढ़ता है तो यह कहनेको जी करता है तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हों, तुमने इसमेंसे सब कृरलतो निकाल दिया है !...

 

 

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